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हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान (Hindu Cosmology): ब्रह्मांड की उत्पत्ति
हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान (Hindu Cosmology): ब्रह्मांड की उत्पत्ति
हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान (Hindu Cosmology) एक अत्यंत प्राचीन और जटिल प्रणाली है, जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति (creation), संरचना (structure), और विनाश (destruction) का विस्तार से वर्णन किया गया है। हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि ब्रह्मांड का संचालन एक चक्रीय प्रक्रिया है, जिसमें सृष्टि, पालन और संहार की घटनाएं क्रमशः होती रहती हैं। ब्रह्मांड का यह चक्रीय स्वरूप न केवल भौतिक जगत से संबंधित है, बल्कि आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।
हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान के सिद्धांत वेदों, उपनिषदों, पुराणों और अन्य प्राचीन शास्त्रों में मिलते हैं। इसमें समय (काल) और स्थान (दिशा) के व्यापक स्वरूप को समझाने के लिए सूक्ष्म और स्थूल दोनों स्तरों पर विश्लेषण किया गया है। हिंदू ग्रंथों में यह बताया गया है कि ब्रह्मांड की रचना ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) द्वारा की जाती है, उसका पालन विष्णु (पालक) द्वारा किया जाता है और अंततः भगवान शिव (संहारक) ब्रह्मांड के विनाश के उत्तरदायी होते हैं।
हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान का गहन अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि इसमें न केवल ब्रह्मांड के भौतिक तत्वों का वर्णन किया गया है, बल्कि चेतना (consciousness), आत्मा (soul), और कर्म (karma) जैसी सूक्ष्म शक्तियों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। यह विज्ञान आधुनिक खगोलशास्त्र (astronomy) और भौतिकी (physics) के कई सिद्धांतों से मेल खाता है, जिससे इसकी गहराई और वैज्ञानिक आधार को समझा जा सकता है।
1. सृष्टि की उत्पत्ति का सिद्धांत (Theory of Creation)
शून्य से सृष्टि का आरंभ: हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति से पहले केवल शून्यता (emptiness) थी। इसे "महाशून्य" या "अव्यक्त" कहा गया है। इस अवस्था को "प्रलय" (cosmic dissolution) कहा जाता है, जब न तो समय (time) था, न ही स्थान (space), और न ही भौतिक तत्व (matter)।
👉 ऋग्वेद में कहा गया है:
"नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।"
(अर्थात – उस समय न तो अस्तित्व था, न ही अनस्तित्व। न तो आकाश था, न ही ऊंचाई-नीचाई।)
इस महाशून्य में केवल "ब्रह्म" (Brahman) का अस्तित्व था। ब्रह्म का स्वरूप सत् (existence), चित् (consciousness) और आनंद (bliss) के रूप में था। इसी ब्रह्म से "ओम" (ॐ) का नाद (sound) प्रकट हुआ, जिससे सृष्टि की रचना आरंभ हुई।
ब्रह्मा की उत्पत्ति: भगवान विष्णु की नाभि से एक कमल प्रकट हुआ, जिसमें भगवान ब्रह्मा उत्पन्न हुए।
भगवान विष्णु ने ब्रह्मा को सृष्टि रचने का आदेश दिया।
ब्रह्मा ने ध्यानमग्न होकर सृष्टि की प्रक्रिया शुरू की।
उन्होंने सबसे पहले चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) और फिर विभिन्न जीवों की रचना की।
पंच तत्वों की रचना: सृष्टि की रचना पांच मूल तत्वों (पंच महाभूत) से हुई:
आकाश (Space)
वायु (Air)
अग्नि (Fire)
जल (Water)
पृथ्वी (Earth)
इन पंच तत्वों से भौतिक जगत की संरचना हुई और इसमें समस्त जीवों का अस्तित्व स्थापित हुआ।
समय का चक्र (Cycle of Time)
हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान में समय की अवधारणा अत्यंत जटिल और विस्तृत है। इसमें समय को एक चक्र (cycle) के रूप में देखा जाता है, जो चार युगों (Eras) में विभाजित है।
सतयुग (Satya Yuga):
1. सत्य और धर्म का युग (17,28,000 वर्ष)
2. इस युग में मनुष्य का जीवनकाल 1,00,000 वर्ष का होता है।
3. इसमें सत्य, अहिंसा और धर्म का पूर्ण रूप से पालन होता है।
त्रेतायुग (Treta Yuga):
1. इस युग में धर्म का ह्रास प्रारंभ होता है। (12,96,000 वर्ष)
2. रामायण का काल इसी युग में आता है।
3. मनुष्य का जीवनकाल 10,000 वर्ष का होता है।
द्वापरयुग (Dvapara Yuga):
1. इस युग में धर्म और अधर्म का संतुलन होता है। (8,64,000 वर्ष)
2. महाभारत का काल इसी युग में आता है।
3. मनुष्य का जीवनकाल 1,000 वर्ष का होता है।
कलियुग (Kali Yuga):
1. यह पाप, अधर्म और असत्य का युग है। (4,32,000 वर्ष)
2. इसमें मनुष्य का जीवनकाल 100 वर्ष से भी कम होता है।
3. वर्तमान समय कलियुग है।
👉 एक महायुग = सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग
👉 एक महायुग = 43,20,000 वर्ष
👉 ब्रह्मा का एक दिन = 1000 महायुग = 4.32 अरब वर्ष
ब्रह्मांड की संरचना (Structure of Universe)
हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान में ब्रह्मांड को 14 लोकों (realms) में विभाजित किया गया है:
सात उच्च लोक (स्वर्ग):
1. भू लोक (Earth)
2. भुवः लोक (Intermediate world)
3. स्वः लोक (Heaven)
4. महः लोक (Great world)
5. जनः लोक (Spiritual world)
6. तपः लोक (World of penance)
7. सत्य लोक (World of truth)
सात निचले लोक (पाताल):
1. अतल लोक
2. वितल लोक
3. सुतल लोक
4. रसातल लोक
5. तलातल लोक
6. महातल लोक
7. पाताल लोक
समुद्र मंथन की घटना
समुद्र मंथन हिन्दू धर्म की एक महत्वपूर्ण पौराणिक घटना है, जिसका वर्णन कई ग्रंथों, विशेष रूप से भागवत पुराण, महाभारत और विष्णु पुराण में मिलता है। इसे देवताओं और असुरों के बीच हुए एक महान संघर्ष के रूप में देखा जाता है, जिसमें अमृत और अनेक दिव्य रत्नों की प्राप्ति के लिए क्षीर सागर (दूध के समुद्र) का मंथन किया गया था। इस घटना के पीछे का मुख्य उद्देश्य अमृत (अमरता प्रदान करने वाला पेय) प्राप्त करना था, जिससे देवता और असुर दोनों ही अमर हो सकते थे।
समुद्र मंथन हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान की एक महत्वपूर्ण घटना है।
• देवताओं और असुरों ने मिलकर अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र का मंथन किया।
• इस मंथन से विभिन्न रत्न, विष, अमृत, कामधेनु गाय और देवी लक्ष्मी प्रकट हुईं।
• भगवान शिव ने हलाहल विष का पान किया, जिससे उनका गला नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए।
निष्कर्ष
हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान भौतिक ब्रह्मांड के साथ-साथ आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांतों को भी समझाता है। इसकी चक्रीय प्रकृति ब्रह्मांड विज्ञान और आध्यात्मिकता का अद्भुत समन्वय है। आधुनिक विज्ञान भी अब ब्रह्मांड के चक्रीय स्वरूप और ब्रह्मांडीय ऊर्जा की अवधारणा की पुष्टि कर रहा है।
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